Sunday, May 3, 2009
जिंदगी का क्रिकेट
Tuesday, April 28, 2009
मेरा गाँव खो गया है
Sunday, April 26, 2009
लोकतंत्र
Saturday, April 25, 2009
किताब
हैरत है।
अक्षर नहीं हैं आज किताब पर
कहाँ चले गए अक्षर
एक साथ अचानक?
सबेरे सबेरे
काले बादल उठ रहे हैं चारों ओर से
मैली बोरियां ओढ़कर सड़क की पेटियों पर
गंदगी के पास सो रहे हैं बच्चे
हस्पताल के बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है एक युवती
पैबन्द लगे मैले कपड़ों में
हिमाल में ठंड से बचने की प्रयास में कुली
एक और प्रहर के भोजन के बदले
खुदको बेच रहे हैं लोग ।
मैं एक एक करके सोच रहा हूँ सब दृश्य
चेतना को जमकर कोड़े मारते हुए,
खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ खुद को अनुभूति के जंगल में ।
कितना पढूँ ? बारबार सिर्फ किताब
समय को टुकडों में फाड़कर
मैं आज दुःख और लोगों के जीवन को पढूंगा ।
अक्षर नहीं हैं किताब पर आज।
Monday, April 20, 2009
सृष्टि का सार
डरती है कैनवस की उस सादगी से
जिसे आकृति के माध्यम की आवश्यकता नहीं
जो कुछ रचे जाने के लिये
नष्ट होने को है तैयार।।
स्वीकार्य है उसे मेरी,
काँपती उंगलियों की अस्थिरता
मेरे अपरिपक्व अर्थों की मान्यतायें
मेरे अस्प्ष्ट भावों का विकार॥
तभी तो तब से अब तक
यद्यपि बहुत बार .....
एकत्रित किया रेखाओं को,
रचने भी चाहे सीमाओं से
मन के विस्तार ..... ॥
फिर भी कल्पना को आकृति ना मिली
ना कोई पर्याय, ना कोई नाम
बिछी है अब तक मेरे और कैनवस के बीच
एक अनवरत प्रतीक्षा ....
जो ढंढ रही है अपनी बोयी रिक्तताओं में
अपनी ही सृष्टि का सार ॥
Tuesday, April 14, 2009
Saturday, April 11, 2009
आवाज़ें
जाने कहाँ से कुछ धीमी आवाज़ें आई
आवाज़ एक जानी पहचानी सी
आवाज़ें कुछ बरसों पुरानी सी
एक हँसी थी दूर से आती हुई
गूंजती थी दिल को भरमाती हुई
कितनी ही बातें थी उस आवाज़ में
जाने क्या कह गई अपने ही अंदाज़ में
एक संगीत खामोशी की नींद तोड़ता हुआ
पुरानी ग़ज़लों का दुशाला ओढ़ता हुआ
कुछ सवाल उठे उचक कर ऐसे
नींद से कोई बच्चा जागता हो जैसे
बूढ़ी पंखुड़ियों से बुझी राख टटोल रहा था
उस किताब में दबा एक गुलाब बोल रहा था
मेरा हाथ पकड़ कर वो मुस्कुराने लगा
किन्ही बिछ्ड़े रास्तों पर ले जाने लगा
कुछ सोच कर मैंने उसका हाथ झटक दिया
किताब बंद कर उसका मुंह भी बंद कर दिया
Thursday, April 9, 2009
सब चलो
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला, हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
Monday, April 6, 2009
Koi deewana baichan hai yahan ......
Koi deewana kehta hai,koi paagal samajhta hai
magar dharti ki bechaini ko bus pagal samajhta hai
mein tujhse door kaisa hoon, tu mujhse door kaisi hai
ye tera dil samajhta hai, yaa mera dil samajhta hai
Mauhabbat ek ehsasson ki pawan si kahaani hai
kabhi kabira deewana tha, kabhi meera diwani thi
yahaan sab log kehte hain meri aankhon mein aasoon hain
jo tu samjhe to moti hai, naa samjhe to paani hai
samandar peer ka andar hai lekin ro nahin sakta
ye aasoon pyaar ka moti hai isko kho nahin sakta
meri chahaht ko apna tu bana lena magar sun le
jo mera ho nahin paaya wo tera ho nahin sakta
Ki brahmar koi kumudni par machal baitha to hangama
hamaare dil mein koi khwab pal baitha to hungama
abhi tak doob kar sunte the sab kissa mauhabbat ka
mein kisse ko hakikat mein badal baitha to hungaama