जाने कहाँ से कुछ धीमी आवाज़ें आई
आवाज़ एक जानी पहचानी सी
आवाज़ें कुछ बरसों पुरानी सी
एक हँसी थी दूर से आती हुई
गूंजती थी दिल को भरमाती हुई
कितनी ही बातें थी उस आवाज़ में
जाने क्या कह गई अपने ही अंदाज़ में
एक संगीत खामोशी की नींद तोड़ता हुआ
पुरानी ग़ज़लों का दुशाला ओढ़ता हुआ
कुछ सवाल उठे उचक कर ऐसे
नींद से कोई बच्चा जागता हो जैसे
बूढ़ी पंखुड़ियों से बुझी राख टटोल रहा था
उस किताब में दबा एक गुलाब बोल रहा था
मेरा हाथ पकड़ कर वो मुस्कुराने लगा
किन्ही बिछ्ड़े रास्तों पर ले जाने लगा
कुछ सोच कर मैंने उसका हाथ झटक दिया
किताब बंद कर उसका मुंह भी बंद कर दिया
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