Sunday, May 3, 2009
जिंदगी का क्रिकेट
क्रिकेट के मैदान पर भागती हुई जिंदगी,
एक एक रन के लिए बढ़ता हुआ तनाव,
अपने बोनस का छक्का
अभी अभी महंगाई ने
बाउंड्री पर लपक लिया है,
लोकल के धक्के से उतरकर,
सब्जी वाले से मचमच करता हुया
लग रहा है अपने नॉट आउट
होने की अपील कर रहा है
कॉलेज से सभी ने सोचा था
इतना पढ़ा लिखा है
ज़रूर जिंदगी मैं बहुत सेंचुरी लगाएगा
लेकिन किस्मत का क्या भरोसा,
इस सरकारी नौकरी ने
रणजी का प्लेयर बना डाला,
कितनी बार मेन ऑफ द मॅच बना
पर प्रमोशन नहीं मिला
आज भी रोज,
नयी इन्निंग खेलने जाता है
अक्सर एक्सट्रा प्लेयर बनकर,
सिर झुकाए शाम को घर आ जाता है,
मल्लिका
Tuesday, April 28, 2009
मेरा गाँव खो गया है
मेरे गाँव को कुछ हो गया है,
उसका सौंधापन खो गया है,
कच्चे घर के बगल की चौपाल का बरगद,
अब अकेले बूढ़े की तरह नज़र आता है,
झुलसी हुई हवा के झोंके मैं
अधजले पेट्रोल की महक आती है,
गाँव की छाती चीर अब बना दिया है
भड़भड़ाती गाड़ियों के लिए रास्ता.
काले रंग के उस नाग पर से
निकलता रहता है ज़हरीला धुआ
रोज ज़मीन का सीना नापते अफ़सर
ओर नोट गिनते ये मां के लाल किसान
अब वहाँ खेती होती है कॉंक्रीट की,
ओर फ़ासले उगती हैउन इंसानो की
जो अंजान है अपने रीति रिवाओं से
रास्ते पर कोई नहीं कहता
घर पर सब कैसे है,
तुम कौन ओर मैं कौन,
शराब की बोतल मैं डूबे सभी बूडे जवान
मंदिर की जगह अब डिस्को बन जाएगा
और भजन की जगह होंगे कूल्हे मॅटकाते लोग,
इसको गाँव को सज़ा मिली है ,
अपने शहर के करीब होने की,
मल्लिका
Sunday, April 26, 2009
लोकतंत्र
आज वोट देकर तुमने उठा दिया है
इस सोते हुए शैतान को फिर से,
किसी के लिए यह हिंदू है
किस के लिए मुस्लिम
अंजाने मैं सब खुश है,
क्योंकि इसका कोई चेहरा नहीं,
लोकतंत्र के नाम पर ,
पाप की इस धरती पर,
तुम्हे इस शैतान से ज़्यादा क्या मिलेगा
भूख, भय, हिंसा, और निरकुंश शासन
इसे लिप्सा है,
मेरे तुम्हारेखून की,
उन चमकते सिक्कों की,
जिनको चमकाया है मैने अपने पसीने से,
उस ताक़त की जिसे पाकर यह शैतान
अपने आप को कहेगा भगवान
अगले पाँच सालों तक.
मल्लिका
Saturday, April 25, 2009
किताब
हैरत है।
अक्षर नहीं हैं आज किताब पर
कहाँ चले गए अक्षर
एक साथ अचानक?
सबेरे सबेरे
काले बादल उठ रहे हैं चारों ओर से
मैली बोरियां ओढ़कर सड़क की पेटियों पर
गंदगी के पास सो रहे हैं बच्चे
हस्पताल के बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है एक युवती
पैबन्द लगे मैले कपड़ों में
हिमाल में ठंड से बचने की प्रयास में कुली
एक और प्रहर के भोजन के बदले
खुदको बेच रहे हैं लोग ।
मैं एक एक करके सोच रहा हूँ सब दृश्य
चेतना को जमकर कोड़े मारते हुए,
खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ खुद को अनुभूति के जंगल में ।
कितना पढूँ ? बारबार सिर्फ किताब
समय को टुकडों में फाड़कर
मैं आज दुःख और लोगों के जीवन को पढूंगा ।
अक्षर नहीं हैं किताब पर आज।
Monday, April 20, 2009
सृष्टि का सार
रंगों की मृगतृष्णा कहीं
डरती है कैनवस की उस सादगी से
जिसे आकृति के माध्यम की आवश्यकता नहीं
जो कुछ रचे जाने के लिये
नष्ट होने को है तैयार।।
स्वीकार्य है उसे मेरी,
काँपती उंगलियों की अस्थिरता
मेरे अपरिपक्व अर्थों की मान्यतायें
मेरे अस्प्ष्ट भावों का विकार॥
तभी तो तब से अब तक
यद्यपि बहुत बार .....
एकत्रित किया रेखाओं को,
रचने भी चाहे सीमाओं से
मन के विस्तार ..... ॥
फिर भी कल्पना को आकृति ना मिली
ना कोई पर्याय, ना कोई नाम
बिछी है अब तक मेरे और कैनवस के बीच
एक अनवरत प्रतीक्षा ....
जो ढंढ रही है अपनी बोयी रिक्तताओं में
अपनी ही सृष्टि का सार ॥
डरती है कैनवस की उस सादगी से
जिसे आकृति के माध्यम की आवश्यकता नहीं
जो कुछ रचे जाने के लिये
नष्ट होने को है तैयार।।
स्वीकार्य है उसे मेरी,
काँपती उंगलियों की अस्थिरता
मेरे अपरिपक्व अर्थों की मान्यतायें
मेरे अस्प्ष्ट भावों का विकार॥
तभी तो तब से अब तक
यद्यपि बहुत बार .....
एकत्रित किया रेखाओं को,
रचने भी चाहे सीमाओं से
मन के विस्तार ..... ॥
फिर भी कल्पना को आकृति ना मिली
ना कोई पर्याय, ना कोई नाम
बिछी है अब तक मेरे और कैनवस के बीच
एक अनवरत प्रतीक्षा ....
जो ढंढ रही है अपनी बोयी रिक्तताओं में
अपनी ही सृष्टि का सार ॥
Tuesday, April 14, 2009
Saturday, April 11, 2009
आवाज़ें
एक पुरानी किताब के पन्नों पे आज उंगली चलाई
जाने कहाँ से कुछ धीमी आवाज़ें आई
आवाज़ एक जानी पहचानी सी
आवाज़ें कुछ बरसों पुरानी सी
एक हँसी थी दूर से आती हुई
गूंजती थी दिल को भरमाती हुई
कितनी ही बातें थी उस आवाज़ में
जाने क्या कह गई अपने ही अंदाज़ में
एक संगीत खामोशी की नींद तोड़ता हुआ
पुरानी ग़ज़लों का दुशाला ओढ़ता हुआ
कुछ सवाल उठे उचक कर ऐसे
नींद से कोई बच्चा जागता हो जैसे
बूढ़ी पंखुड़ियों से बुझी राख टटोल रहा था
उस किताब में दबा एक गुलाब बोल रहा था
मेरा हाथ पकड़ कर वो मुस्कुराने लगा
किन्ही बिछ्ड़े रास्तों पर ले जाने लगा
कुछ सोच कर मैंने उसका हाथ झटक दिया
किताब बंद कर उसका मुंह भी बंद कर दिया
जाने कहाँ से कुछ धीमी आवाज़ें आई
आवाज़ एक जानी पहचानी सी
आवाज़ें कुछ बरसों पुरानी सी
एक हँसी थी दूर से आती हुई
गूंजती थी दिल को भरमाती हुई
कितनी ही बातें थी उस आवाज़ में
जाने क्या कह गई अपने ही अंदाज़ में
एक संगीत खामोशी की नींद तोड़ता हुआ
पुरानी ग़ज़लों का दुशाला ओढ़ता हुआ
कुछ सवाल उठे उचक कर ऐसे
नींद से कोई बच्चा जागता हो जैसे
बूढ़ी पंखुड़ियों से बुझी राख टटोल रहा था
उस किताब में दबा एक गुलाब बोल रहा था
मेरा हाथ पकड़ कर वो मुस्कुराने लगा
किन्ही बिछ्ड़े रास्तों पर ले जाने लगा
कुछ सोच कर मैंने उसका हाथ झटक दिया
किताब बंद कर उसका मुंह भी बंद कर दिया
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